Tuesday, April 29, 2008

Train mein latke hue sapney

ट्रेन में लटके हुए सपने

हर रोज़ यूं ही सबेरे सबेरे

जाते हैं बहुत दूर उन्हें सच करने

फ़िर कुछ लौट आते हैं इस उम्मीद में

कि वो अगले दिन ज़रुर सच होंगे

और कुछ कभी भी लौटकर नहीं आ पाते

'साली ट्रेन नहीं, ज़िंदगी है लोकल'

को थूक कर

फिर लटक जाते हैं सपने।

1 comment:

Anonymous said...

bite hue aur anewale kal me apne sapnoka khayal rakhna. good luck rupesh.